शनिवार व्रत
शनिवार का व्रत रखने से भक्तों को सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती है और जीवन में कोई भय नहीं सताता. इस व्रत को कब और कैसे रखा जा सकता है, इस व्रत को करने की सही पूजा विधि क्या है, आइए जानते हैं । हिन्दु धर्म में शनिवार का व्रत काफी फलदायी माना गया है. शनिवार न्याय के देवता कहे जाने वाले शनिदेव को समर्पित है. ऐसे में शनिवार का व्रत शनिदेव के लिए रखा जाता है. मान्यता है कि जो भी इस दिन सच्चे दिल से शनिदेव का ध्यान करते हुए व्रत रखता है उसे शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या से मुक्ति मिलती है और शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त होता है.
पुराणों के अनुसार शनिदेव का व्रत शुक्ल पक्ष के शनिवार से अथवा मूूल नक्षत्र में पड़ने वाले शनिवार से कुल 7 शनिवार तक लिये रखा जा सकता है। ऐसा करने से जातक को शनि देव की असीम कृपा प्राप्त होती है एवं उसे हर क्षेत्र में लाभ प्राप्त होता है।
शनिवार व्रत पूजन विधि
सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और साफ़ कपड़े पहनें , व्रत का संकल्प लें, शनिदेव की प्रतिमा या शनि यंत्र रखें, शनिदेव को पंचामृत से स्नान करवाएं। फूलों की माला अर्पित करें, धूप, फल, काले तिल, पूड़ी, और काली उड़द की खिचड़ी का भोग लगाएं। तिल के तेल या सरसों के तेल का दीया जलाएं, शनि मंत्रों का जाप करें, शनिदेव की स्तुति का पाठ करें, पूजा का समापन शनिदेव की आरती से करें, व्रत कथा सुनें, क्षमतानुसार, ब्राह्मणों को भोजन कराएं. असहाय लोगों को भोजन कराएं. व्रत का पारण काली उड़द की दाल की खिचड़ी से करें, व्रत के अगले दिन सुबह नहाकर पूजा करने के बाद ही कुछ खाना चाहिए ।
शनिवार व्रत कथा
एक बार स्वर्गलोक में सबसे श्रेष्ठ देव कौन है के प्रश्न पर नौ ग्रहों में बहस प्रारम्भ हो गया। सभी ग्रह निर्णय के लिए देवराज इन्द्र के दरवार में पहुंचे और उनसे कहने लगे – हे इंद्रदेव , आप ही बताओ हममें से सबसे श्रेष्ठ कौन है? नव ग्रह देवों के मुख से ये प्रश्न सुन कर इन्द्र देव बड़े ही उलझन में पड़ गए, फिर उन्होंने कुछ विचार कर सभी देवों को भू-लोक के राजा विक्रमादित्य के पास जाने का सुझाव दिया।
सभी ग्रह पृथ्वी-लोक आकर राजा विक्रमादित्य के यहाँ पहुंचे। जब ग्रह देवों ने अपना समस्या राजा विक्रमादित्य से बताये तो वह भी कुछ देर के लिए उलझन में पड़ गए क्योंकि सभी ग्रह अपनी-अपनी शक्तियों के साथ महान थे। किसी को भी किसी से कम कहने पर उनके क्रोध के प्रकोप का सामना करना पर सकता है।
अचानक राजा विक्रमादित्य को एक विचार मन में आया और उन्होंने अलग-अलग धातुओं जैसे सोना, चांदी, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाएं। सबसे पहले सोने का आसन रखा गया और सबसे बाद में लोहे का आसन रखा गया। उन्होंने सभी ग्रहों को अपने-अपने आसन पर आसीन होने के लिए बोले। उन्होंने कहा- सभी ग्रहदेव अपना अपना आसन ग्रहण करें, जिसका आसन आगे होगा वह सबसे बड़ा तथा जिसका पीछे होगा वह सबसे छोटा होगा।
लोहे का आसन सबसे पीछे था इसलिए शनिदेव को समझने में देर नहीं लगी कि राजा ने उन्हें सबसे छोटा समझने की गलती किया है। इस निर्णय से शनि देव रुष्ट होकर बोले- हे राजन, तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा घोर अपमान किया है। मेरी शक्तियों का तुम्हें अंदाजा नहीं है। सूर्य किसी भी राशि पर एक महीने, चन्द्रमा दो महीने दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, बृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी भी राशि पर ढ़ाई वर्ष से लेकर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को भी मेरे प्रकोप से बचाना मुश्किल है। अब तू भी मेरे प्रकोप से पीड़ित होने के लिए तैयार रहना।
इस पर राजा विक्रमादित्य ने कहा – जो भी नसीब में होगा देखेंगे। इसके बाद अन्य सभी ग्रहों के देवता ख़ुशी के साथ अपने अपने देवलोक चले गए, परन्तु शनिदेव बहुत ही क्रोधित मुद्रा में विदा हुए।
थोड़े दिन बाद जब राजा विक्रमादित्य पर शनि की साढ़े साती दशा आई तो शनि देव ने अश्व (घोड़ा ) व्यापारी का रूप धारण कर राजा विक्रमादित्य की राज्य में पहुंचे। राजा विक्रमादित्य घोड़ों को देखकर सबसे अच्छे घोड़े को अपनी सवारी के लिए पसंद कर उस पर सवार हुए । विक्रमादित्य के घोड़े पर चढ़ते ही घोड़ा बिजली की गति से भागने लगा । तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा विक्रमादित्य को बहुत दूर एक घना जंगल में लेकर चला गया और फिर वहां राजा को नीचे गिराकर अदृश्य हो गया। राजा वहां से लौटने के लिए जंगल में इधर उधर भटकने लगा पर उसे कोई मार्ग नहीं मिला। इधर राजा को भूख और प्यास भी लग गया था। बहुत भटकने पर उन्हें एक चरवाहा दिखा। राजा ने उससे प्यास बुझाने के लिए पानी मांगा। पानी पीने के बाद राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दी और उससे मार्ग पूछकर किसी तरह जंगल से बाहर निकल कर एक अन्य नगर में पहुंचे ।
नगर पहुंचने के बाद विक्रमादित्य किसी सेठ की दुकान पर बैठ गए। उनके कुछ देर बैठने से सेठ के दुकान की बिक्री बढ़ गई। सेठ ने विक्रमादित्य को भाग्यशाली समझ उसे अपने घर खाना खाने ले गया। राजा को एक घर में छोड़ सेठ किसी काम से कुछ देर के लिए बाहर निकला। तभी उस कमरे में एक आश्चर्यजनक घटना हुई। कमरे में खूंटी पर लटकता हुआ सोने की हार खूंटी निगल गई । सेठ वापस आकर जब हार नहीं देखा तो उसने राजा को चोर समझ अपने नौकरों से बोला कि इसे रस्सियों से बाँध दो और नगर के राजा के पास लेकर चलो। राजा ने जब विक्रमादित्य से पूछा कि हार कहाँ है तो उन्होंने बताया कि हार को खूंटी निगल गया। इस पर राजा को बहुत क्रोध हुआ और उसने चोरी के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का फैसला सुनाया। राजा के फैसले के अनुसार विक्रमादित्य के हाथ-पांव काट कर उन्हें सड़क पर छोड़ दिया गया।
कुछ दिन बाद किसी तेली ने उसे देखा तो अपने घर ले गया और उसको कोल्हु चलाने में रख लिया। विक्रमादित्य कोल्हू के पास बैठ बैल को आवाज देकर चलाता रहता था और तेली उसे इसके बदले भोजन देता था। शनि के साढ़े साती का समय ख़त्म होने के बाद वर्षा ऋतू आरम्भ हुई। रात में विक्रमादित्य मेघ मल्हार गाने लगा तभी वहाँ की राजकुमारी अपने रथ से उस घर के पास से गुजर रही थी। वे विक्रमादित्य का आवाज सुनकर बहुत प्रभावित हुई और दासी से उसे बुला लाने के लिए कहा। दासी अपंग विक्रमादित्य के बारे में पता किया और लौट कर राजकुमारी को बताया। राजकुमारी उसके गायन से इतनी प्रभवित थी कि सब कुछ जानने बाद भी उस अपंग विक्रमादित्य से विवाह करने का फैसला किया।
राजकुमारी जब अपना फैसला अपने माता पिता बताया तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने राजकुमारी को बहुत समझाने की कोशिश किया। परन्तु राजकुमारी नहीं मानी और प्राण त्यागने की धमकी देने लगी। अंततः राजा रानी ने अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह कर दिया। विवाह के बाद राजकुमारी भी विक्रमादित्य के साथ तेली के घर रहने लगी। उसी रात में राजा को शनि देव ने स्वप्न दिए कि राजा तुमने मेरा शक्ति देख लिया। मेरे प्रकोप से तुम्हें ये समय देखना पड़ा। यह मेरा अपमान करने का दंड था। राजा ने शनिदेव से क्षमा मांगी और प्रार्थना की – हे देव, आपने जो यह दुःख मुझे दिया है, किसी और को मत देना। शनिदेव बोले – राजन, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर तुम्हें क्षमा करता हूं। जो कोई भी स्त्री या पुरुष मेरी पूजा करेगा, कथा सुनेगा, जो प्रति दिन मेरा ध्यान करेगा, चींटियों को आटा खिलाएगा वह प्राणी सभी प्रकार के दुख – कष्ट से मुक्त होगा तथा उसके सभी मनोकामना पूर्ण होंगे। यह कहकर शनिदेव चले गए।
सुबह जब राजा विक्रमादित्य सो कर उठे तो अपने हाथ-पांव सही देखकर बहुत खुश हुए। उनहोंने मन ही मन भगवान शनि को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव देखकर आश्चर्यचकित हो गई। फिर राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय दिया और शनिदेव के प्रकोप की कथा सुनाई। जब सेठ को इस बात का पता चला तो वह भागता हुआ आया और राजा विक्रमादित्य के पैर पकड़ कर क्षमा मांगने लगा। राजा विक्रमादित्य ने उसे क्षमा किया क्योंकि उन्हें पता था कि यह सब शनिदेव के कुदृष्टि के कारण हुआ है। सेठ राजा को पुन: अपने घर ले जाकर भोजन कराया। उस क्षण वहां एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सबके सामने घर की खूंटी ने हार उगल दिया। राजा विक्रमादित्य के साथ सेठ ने भी अपनी बेटी का विवाह कर दिया और बहुत सारे स्वर्ण आभूषण, धन दौलत देकर राजा के साथ अपनी बेटी को विदा किया।
राजा विक्रमादित्य राजकुमारी और सेठ की बेटी के साथ अपने राज्य वापस पहुंचे तो प्रजा ने हर्ष के साथ उनका स्वागत किया। अगले ही दिन राजा विक्रमादित्य ने अपने राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब ग्रहों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक व्यक्ति को शनिवार को शनिदेव का व्रत कर व्रतकथा अवश्य सुनना चाहिए । राजा विक्रमादित्य की इस घोषणा से शनिदेव बहुत खुश हुए। शनिवार का व्रत करने और शनिवार व्रत कथा सुनने से भगवान शनिदेव की अनुकंपा हमेशा बनी रहती है और जातक के सभी कष्टों का निवारण होता है।